नई दिल्ली, 16 दिसंबर 2025।
विज्ञापन को केवल भावनाओं या बाज़ार की भाषा तक सीमित मानना उसकी रचनात्मक शक्ति को कम करके आंकना है। विज्ञापन अपने आप में एक नया, जीवंत और समकालीन साहित्यिक माध्यम है—यह विचार प्रसिद्ध फिल्म व रंगमंच निर्देशक और लेखिका रमा पांडेय ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (IGNCA) में आयोजित विशेष प्रदर्शनी ‘Stars Shine in Ads: an Unique Ad Exhibition’ के उद्घाटन अवसर पर व्यक्त किए।
संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन स्वायत्त संस्था IGNCA के मीडिया सेंटर द्वारा आयोजित इस अनूठी प्रदर्शनी का आयोजन संवेत ऑडिटोरियम में किया गया। प्रदर्शनी का उद्घाटन रमा पांडेय, डॉ. सच्चिदानंद जोशी (सदस्य सचिव, IGNCA) और श्री सुशील पंडित (संचार रणनीतिकार) ने संयुक्त रूप से किया। कार्यक्रम का उद्घाटन संबोधन श्री अनुराग पुनैथा, नियंत्रक, मीडिया सेंटर, IGNCA ने दिया। इस प्रदर्शनी का क्यूरेशन श्री इक़बाल रिज़वी द्वारा किया गया। प्रदर्शनी के साथ विषयगत पैनल चर्चा का भी आयोजन किया गया।
जब सिनेमा और विज्ञापन बने सामाजिक स्मृति का हिस्सा
इस प्रदर्शनी ने सिनेमा की दुनिया से आगे बढ़ते हुए उस भूमिका को रेखांकित किया, जिसमें विज्ञापन ने फिल्मी सितारों को आम जनजीवन का हिस्सा बना दिया।
फिल्मी हस्तियों ने न केवल लोगों की पसंद, फैशन और आकांक्षाओं को आकार दिया, बल्कि उनके प्रति जनता के भरोसे ने उन्हें भारतीय विज्ञापन की विकास-यात्रा का केंद्र बना दिया। उत्पादों से उनका जुड़ाव भारत के दृश्य और सांस्कृतिक इतिहास का एक अहम अध्याय है, जहां लोकप्रिय छवियों और व्यावसायिक संचार ने मिलकर उपभोक्ता संस्कृति और सामाजिक स्मृति को प्रभावित किया।
इस अवसर पर भारतीय विज्ञापन जगत के महान स्तंभ दिवंगत पीयूष पांडेय को श्रद्धांजलि अर्पित की गई, जिनके योगदान ने भारतीय विज्ञापन की भाषा, कल्पनाशीलता और सांस्कृतिक संवेदना को नई दिशा दी।
विज्ञापन भी कविता और नाटक की तरह संवाद करता है: रमा पांडेय
अपने संबोधन में रमा पांडेय ने कहा—
“जिस तरह कविता कुछ शब्दों में गहरी भावनाओं को अभिव्यक्त करती है, कहानी सामान्य जीवन को अर्थ देती है और नाटक संवाद के माध्यम से मनुष्यों को जोड़ता है, उसी तरह विज्ञापन भी कुछ पंक्तियों, दृश्य-चित्रों और क्षणिक अभिव्यक्तियों के ज़रिये समाज से संवाद करता है।”
उन्होंने कहा कि विज्ञापन का उद्देश्य केवल उत्पाद बेचना नहीं होता, बल्कि यह भरोसा, अपनापन और संबंध गढ़ता है। जब विज्ञापन आम आदमी की भाषा में, उसके अनुभवों और स्मृतियों से जुड़कर प्रस्तुत होता है, तो वह बाज़ार की सीमाओं से निकलकर एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ बन जाता है।
इसी कारण कई विज्ञापन वर्षों तक लोगों की स्मृति में बसे रहते हैं—वे हमें मुस्कुराने पर मजबूर करते हैं, सोचने को प्रेरित करते हैं और अपने समय की आत्मा को परिभाषित करते हैं।
विज्ञापन का इतिहास समाज के परिवर्तन का इतिहास
कार्यक्रम में बोलते हुए श्री सुशील पंडित ने कहा—
“जब मैंने पत्रकारिता के दौरान भारतीय विज्ञापन को समझा, तो महसूस किया कि यह केवल उत्पाद बेचने का माध्यम नहीं रहा, बल्कि हर दौर के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बदलावों का प्रतिबिंब रहा है।”
उन्होंने बताया कि एक समय ऐसा था जब अख़बार एक या डेढ़ रुपये में बिकते थे और वह राशि छपाई की लागत भी पूरी नहीं कर पाती थी। ऐसे समय में प्रिंट मीडिया को जीवित रखने वाली शक्ति विज्ञापन ही था।
विज्ञापन ने न केवल समाचार उद्योग को संबल दिया, बल्कि साहित्य, कविता और सांस्कृतिक विमर्श को भी जीवित रखा।
पीयूष पांडेय ने बदली विज्ञापन की भाषा
श्री पंडित ने कहा कि पीयूष पांडेय का सबसे बड़ा योगदान विज्ञापन की भाषा को औपचारिकता से निकालकर सहज, आत्मीय और संवादात्मक शैली में बदलना था—एक ऐसी भाषा जो दोस्ताना बातचीत की तरह भरोसा पैदा करती है।
उन्होंने जोर देते हुए कहा—
“तकनीक और उत्पाद बदले जा सकते हैं, उनकी नकल भी संभव है, लेकिन ब्रांड और उपभोक्ता के बीच बना भावनात्मक रिश्ता अमूर्त होता है—उसे दोहराया नहीं जा सकता।”
विज्ञापन की असली ताकत इसी रिश्ते को बनाने में है, जो आवश्यकता से आगे बढ़कर इच्छा, निष्ठा और विश्वास का निर्माण करता है।
डिजिटल युग में बढ़ी जिम्मेदारी
डिजिटल युग पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि माध्यम भले ही बदल गए हों और संचार अधिक लक्षित हो गया हो, लेकिन चुनौतियां भी उतनी ही बढ़ी हैं। नई पीढ़ी की भाषा, आकांक्षाएं और दृष्टिकोण अलग हैं, और उनसे जुड़ने के लिए यह समझना जरूरी है कि संचार केवल ‘क्या कहा गया’ नहीं, बल्कि ‘कैसे कहा गया’ भी है।
विज्ञापन का संरक्षण भी सांस्कृतिक दायित्व
अपने उद्घाटन संबोधन में श्री अनुराग पुनैथा ने कहा कि IGNCA की विज्ञापन अभिलेखीकरण (Archiving) पहल भारत की इस अमूल्य दृश्य विरासत को संरक्षित और समृद्ध करने के लिए समर्पित है।
इस प्रदर्शनी के माध्यम से विज्ञापनों को केवल सहेजा ही नहीं गया, बल्कि भारत की रचनात्मक मार्केटिंग यात्रा—उसकी सौंदर्य दृष्टि, भाषा, हास्य, सामाजिक प्रभाव और नॉस्टैल्जिया—का एक सुव्यवस्थित अभिलेख भी तैयार किया गया है।
कार्यक्रम में बड़ी संख्या में विज्ञापन के छात्र, शोधकर्ता, कला-संस्कृति प्रेमी और आम दर्शक उपस्थित रहे।
